भटकती आत्मा भाग - 11
भटकती आत्मा भाग –12
मिशन अस्पताल का वह भव्य विशाल इमारत ! अंग्रेजों की उदारता का सुरम्य स्तूप ! दु:खों को दूर करने वाला जादुई भवन ! आज ग्रामीण युवकों से यह भवन शोभायमान था। सब युवक बाहर खड़े थे,उसी भव्य भवन के अंदर शल्य कक्ष में मनकू माँझी को ले जाया गया था। कलेक्टर साहब की उपस्थिति के कारण सभी चिकित्सकों और नर्सों में हलचल सी मच गई थी। अब कक्ष का कपाट बंद हो चुका था बाहर मैगनोलिया दु:ख की प्रतिमा बनी खड़ी थी। नेत्र में उमड़ते आंसुओं को किसी प्रकार रोकने का प्रयास कर रही थी। सामने ही एक कुर्सी पर कलेक्टर साहब निर्लिप्त सा बैठे थे। प्रतीक्षा की घड़ियों में कितनी बेकरारी होती है, यह वही समझ सकता है जो इन लम्हों से गुजरा हो। द्वंद से लड़ता हुआ मानव इस समय ईश्वर को ही याद करता है। जब इंसान के बस की बात नहीं होती उसी समय ईश्वर के अस्तित्व की महत्ता की झलक मिलती है। शल्य कक्ष के अंदर मनकू जीवन और मृत्यु के झूले पर झूल रहा था और बाहर मैगनोलिया के दिल पर आरी सा चल रहा था। अपने दिल के गहरे दु:ख को वह स्वयं ही झेल रही थी। आंखों से उमड़ते आंसुओं को जब वह रोक ना सकी तब हिचकियां ले लेकर रोने लगी l कलेक्टर साहब ने निर्लिप्त भाव से आश्चर्यचकित होते हुए अपनी पुत्री से कहा - "माय डॉटर काहे को रोता है,गॉड पर फेथ करो,सब ठीक होगा"।
मैगनोलिया कुछ न बोली वह अपने आंसुओं को पोंछने लगी। डेढ़ घंटे के बाद कक्ष का द्वार खुला डॉक्टर के मुख पर प्रसन्नता थी।
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मनकू मांझी के सिरहाने मैगनोलिया विषाद की देवी बनी बैठी थी | राउंड में आने वाले डॉक्टर और नर्स आलोचनात्मक दृष्टि से मैगनोलिया को देख रहे थे | शायद यह सोच रहे होंगे एक काले भारतीय के लिए यह अंग्रेज बाला क्यों अपना समय व्यर्थ कर रही है,लेकिन पूछने की हिम्मत किसी में न थी,क्योंकि सब जानते थे यह लड़की कलेक्टर साहब की पुत्री है,कुछ भी पूछने से बुरा मान जाएगी। मैगनोलिया धीरे धीरे मनकू के मस्तक हो सहला रही थी। बाँह और पैर के पर प्लास्टर चढ़ा दिया गया था। उसकी चेतना अभी तक नहीं लौटी थी। दुःख और व्यग्रता से मैगनोलिया का दिल बाहर निकला जा रहा था। दो घंटे की अथक प्रतीक्षा के उपरांत मनकू ने आंखें खोली, इशारे से पानी मांगा। मैग्नोलिया ने चम्मच से उसे पानी पिलाया। पानी पीने के बाद पुनः उसकी आंखें बंद हो गईं।
मैगनोलिया डॉक्टर को सूचित करने गई,कुछ देर के बाद डॉक्टर के साथ वह आई। डॉक्टर ने रोगी का परीक्षण किया और मैगनोलिया से कहा - "डोंट वरी मैगनोलिया,यह खतरा से बाहर हो गया है"।
"थैंक्यू डॉक्टर"- मैगनोलिया ने कहा।
"आप अपना घर जाइए,नर्स इनकी देखभाल कर लेगी"।
"नहीं डॉक्टर,हम यहीं रहेगा। इसका देखभाल हम खुद ही करेगा"|
"अच्छा, जैसी आपकी इच्छा"|
डॉक्टर कुछ आवश्यक बातों की उसे हिदायत देकर चला गया। कुछ ग्रामीण नवयुवक मनकू को देखने आए थे,वे लोग समाचार ज्ञात करके एक-एक कर चले गए। मनकू के भाई को भी वे अपने साथ ले गये थे,यह कहकर कि पिता की देखभाल भी करनी है। और फिर गांव से जब कोई आएगा उसे भी साथ में ले आएंगे। उसका भाई अभी इतना बड़ा नहीं था कि इतनी दूर के किसी अस्पताल से अकेले अपने गांव तक आना-जाना कर लेता। अब मात्र मैगनोलिया मनकू के पास रह गयी थी जो उसके सिरहाने बैठकर उसका ललाट सहला रही थी।
एक बार फिर मनकू ने आंखें खोलीं, मैगनोलिया को देखकर आश्चर्यचकित हो गया और बोला - "डियर मैगनोलिया मैं कहां हूं"?
" तुम अस्पताल में हो डियर"|
"तुम यहां पर मेरी सेवा में क्यों लगी हो डियर, घर क्यों नहीं चली जाती"? - मनकू ने कहा।
"तुम क्या जानो डियर मैं कितना दुखी हूं" - मैगनोलिया ने कहा |
"क्यों दुखी होती हो"? - मनकू ने कहा |
" हम तुमको कैसे बतलाए, इतना ही जान लो अगर तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं भी सुसाइड कर लेता"|
"आह - हा - नहीं-नहीं, तुम ऐसा मत सोचो डियर"|
"डॉक्टर ने कहा है तुम दो महीने में ठीक हो जाओगे,हड्डियां टूट गई हैं इसको ठीक होने में लगभग दो महीना लग जाएगा"|
मुस्कुराता हुआ मनकू बोला - "तुम क्या दो महीना तक मेरे पास रहोगी डियर"?
"अगर रहूंगी तो तुम्हें एतराज है क्या "?
मनकू - "नहीं डियर तुम घर जाओ, नहीं तो तुम्हारे पिता कुछ और ही समझ लेंगे"|
"समझेंगे तो इसमें बुरा क्या है ? समझने दो जो समझें"|
- × - × -
गांव के सभी लोग दु;ख के सागर में डूबे हुए थे, सबसे अधिक दु:खी मनकू माझी के माँ-पिता थे | जानकी भी कम दु:खी नहीं थी | मनकू के बाबा की तबीयत में सुधार हो गया था,परंतु उनका दिल तो बेटे की स्थिति जानकर बिलख उठा था । बहुत मुश्किल से उन्हें गांव वालों ने दो-तीन दिन घर में आराम करने के लिए मनाया,क्योंकि वह इतने कमजोर थे कि उतनी दूर हॉस्पिटल जाने की स्थितिमें नहीं थे । परंतु वे मनकू को देखने के लिए बेचैन थे । बिना उसे अपनी आंखों से देखे उन्हें कुछ खाने की क्या थोड़ा सा पानी पीने की भी इच्छा नहीं हो रही थी । उन्हें लगता था गांव वालों ने उन्हें मनकू की सही स्थिति की जानकारी नहीं दी है,इसलिए वह स्वयं अपनी आंखों से मनकू को देखना चाहते थे । बेटे को बिना देखे वे और कुछ खाने पीने को भी तैयार नहीं थे । ऐसे समय में जानकी ही बहुत मुश्किल से किसी तरह मनकु के माँ-बाबा को जबरदस्ती दो कौर खिला देती थी। जानकी अपने दु:ख को दिल में दबाकर दैनिक क्रियाकलाप में व्यस्त रहती थी |
मेला के पूर्व उसके दिल में कितना उमँग था,सोचती थी कि मेला की समाप्ति के बाद मनकू के सीने में सिर रखकर फूली नहीं समाएगी, मेला में मनकू के साथ नृत्य करेगी। परन्तु वह सारे प्रसन्नता के फूल खिलने से पूर्व ही मुरझा गए थे। वह इतनी दु:खी थी अब,परन्तु अपना दु:ख किसी को बतला भी तो नहीं सकती थी।
कुछ युवकों ने गांव में आकर कहां था - "कलेक्टर साहब की बेटी दिन-रात मनकू के सिरहाने बैठी रोती रहती है | वही उसकी देखभाल करती है,किसी को वहां बैठने भी नहीं देती"|
यह सुनकर जानकी के दिल में घोर पीड़ा उमड़ी। दिल चाक-चाक हो गया | आशंका अब वास्तविकता का रूप धारण कर रही थी,तो वह सोचने लगी - शायद वह चुड़ैल अब मनकू को उससे छीन चुकी है। वह भी उस से प्रेम करती है, तभी तो दिन रात वहीं पड़ी रहती है |
कभी-कभी मनकू पर उसकी झुंझलाहट बढ़ जाती | अब मनकू के विगत व्यवहार को विशेष रूप से वह याद कर रही थी | कुछ दिनों से मनकू जानकी से खिंचा-खिंचा सा रहने लगा था। अब दिल खोलकर सारी बातें कहाँ बता
पाता था, यूं ही हां हूं में जवाब दे देता था। अब दिल बुरी तरह घायल हो गया था जानकी का, उसने अस्पताल जाने का निर्णय लिया | वह दौड़ पड़ी मनकू के बाबा के पास |
" काका मैं अस्पताल जाना चाहती हूं"|
"ठीक है बेटी, कल मैं अस्पताल जाने का सोच रहा था; तुम भी चलना मेरे साथ"|
"हां काका,जाने वह कैसे हैं,मैं उनको देखना चाहती हूं"|
"देख कर क्या करोगी बेटी,भाग्य ने तो मुझे मार डाला है"|
"दु:खी ना हों काका,अब तो सुनती हूं कि ठीक हो रहे हैं वे"|
"हां बेटी, सुना तो मैंने भी है असली बात तो जाने पर ही पता चलेगा"|
"अच्छा काका मैं घर जा रही हूं, कल मुझे भी साथ कर लीजिएगा"|
"ठीक है बेटी,कल तो आने दो"- मनकू के बाबा ने कहा |